Friday, October 12, 2012

आज़ादी?

बचपन से येही पढाया गया था इतिहास कि क्लास में कि अंग्रेजों ने हमे जुदा किया था..उनका एक ही मंत्र था फूट डालो और राज करो.

क्या तब हममें फूट डालने कि ज़रुरत थी? शायद हाँ..शायद नहीं...हम कभी एक थे ही नहीं...बस कहने वाली बात है कि हम पहले भारतवासी फिर हिन्दू या मुसलमान...नाह हम पहले हिन्दू या मुसलमान ही थे...हम हिन्दुस्तानी न तब थे न अब हैं.

आज भी हममे फूट डालने कि ज़रुरत नहीं है..हम आज भी उतने ही बँटे हैं जितने हमेशा से थे...बस आज़ादी के बाद हमारे पास बँटने के लिए ज्यादा विषय आ गए हैं.

अगर मैं यूँ कहूं के हम आज के बनिस्बत जब अंग्रेजों के ग़ुलाम थे..तब कब कम बँटे थे तो गलत नहीं होगा. अंग्रेजों ने बेशक हम पे खूब ज़ुल्म किये और खूब कहर ढाए, पर हम तब जुड़े थे...क्योंकि हमारे पास एक ही उद्देश्य था..आज़ाद होना.

तब कावेरी पे विवाद नहीं होता था, तब राम और बाबरी पे झगडे नहीं थे, तब हम काफी हद तक जुड़े हुए थे. तब मुंबई और बॉम्बे कि बात नहीं थी, तब बिहारी और मुम्बईकर जैसे शब्द शायद थे ही नहीं.

पर अब तो आज़ाद हैं भई, और कितनी चीज़ें हैं हमारे पास लड़ने के लिए. हमे अब अंग्रेजों कि ज़रुरत नहीं फूट डलवाने के लिए, अब तो हमारे हिन्दुस्तानी नेता और भगवन का नाम जपने वाले भगवाधारी और कुर'आन शरीफ जुबानी याद रखने वाले ही काफी है हमे लड़वाने के लिए.

ये काफी नहीं थी तो भाषा, प्रान्त, नदियों के नाम पे बाँट दिए गए..और हम बड़े प्यार से, बड़े आराम से बँट गए.

धर्म निरपेक्षता हमारे वहां बस नाम ही कि है.हम जितने ज्यादा अपने प्रान्त और अपनी भाषा के लिए अभिमान रखते हैं, उसका १०% अगर भारतीय होने पे रख्खे तो ये देश कुछ और ही हो जाए...

अगर आज कि तारीख में हमे कुछ एक रखता है तो वो है क्रिकेट..न न मज़ाक नहीं कर रहा, ज़रा सोचिये इस बात पे..ऐसी कौनसी चीज़ है, जो कोलकोता और मुंबई में उतनी ही शिद्दत से देखि जाती है और फोलो कि जाती है, और कौनसी बात पे एक मराठी नेता, रांची-झारखण्ड में रहने वाले खिलाडी के लिए खड़े हो ताली बजता है...ऐसी कौनसी जगह है जहाँ एक गुजरात का मुसलमान, एक दिल्लीवासी, एक मराठी, एक बंगाली, एक केरला का बंदा सब एक बिहारी कि अगेवानी में खेलते हैं. जहाँ एक चेन्नई के धर्मनिष्ठ ब्रह्मण एक मुसलमान के लिए कह सकता है..ये देखो "अपना" फलां-फलां खिलाडी कितना अच्छा है.

सच है...क्रिकेट के मैदान पे हम सब एक हो जाते हैं. वहां दुश्मन मुसलमान नहीं, पाकिस्तान हैं, वहां धर्म नहीं आता, नाही जाती आती हैं...वहां हम एक हो जाते हैं.

कितनी अजीब बात हैं न? एक खेल जो अंग्रेज़ लेके आये थे हमारे मुल्क में..आज भी हमे जोड़े रखता है..बिलकुल वैसे ही जैसे अंग्रेजों हम ग़ुलाम बना के जोड़े रख्खा था.

हम आज़ाद हैं...है न?

Tuesday, October 2, 2012

मन चंगा?

मुझे आज तक एक बात समझ नहीं आई है..खैर ऐसी तो बहुत सी बातें हैं जो मेरी समझ के बाहर है पर ये बात बहुत कॉमन सी है.

बचपन में कहीं पढ़ा था.."मन चंगा तो कथौति में गंगा" पर ये कभी भी अमल होते देखा नहीं है...

अक्सर लोगों से सुना है, और काफी करीबी लोगों को भी देखा है  कि कोई एक देव स्थल कि तारीफ करते और उसके गुण गाते, " ग़ज़ब कि महिमा है भाई सिद्धि-विनायक मंदिर कि या लालबाग चा राजा कि"

गणपति क्या बदल जाते हैं? क्या साईं बाबा शिर्डी में स्पेशल होते हैं? और क्या आपकि श्रद्धा एक जगह से दूसरी जगह में बदल जाती है? क्या ये मूरत या माहौल का असर है?? अगर है,  तो सारी मूरत शिर्डी या सिद्धि-विनायक जैसी क्यों नहीं बनवाते?

शकल तो वोही रहती है आपके ख़ुदा कि तो फिर क्या बदल रहा है..आपकी श्रध्दा?
कहीं तो कुछ गड़बड़ ज़रूर है...

आपके देवस्थलों को रेटिन्ग्ज़ कि ज़रुरत है...फलां-फलां जगह का मंदिर ज्यादा असरकारक है और हाँ वो फलां-फलां दिनों को ही असर दिखता है. यहाँ पर चलके जाने से काम हो जाता है.

जो घर के पड़ोस में है वो मंदिर अच्छा तो है पर यहाँ वो दूर वाले मंदिर सी बात कहाँ?

और ये सिर्फ हिन्दू धर्म कि बात नहीं है..ईसाईयों में भी ये देखा गया है और पारसिओं से भी सुना है...

मुसलामानों में ये नहीं देखा गया है...ये गनीमत है...फिर भी किसी एक जगह पे जाने कि बात तो उनमें भी है ही..या फलां जगह कि एक नमाज़ किसी और जगह ही नमाज़ से ज्यादा असरदार है, ये तो सुना ही है.

क्या वजह है इन सब कि..क्या इंसानों का मन चंगा नहीं रहा अब??