Wednesday, December 19, 2012

खुदगर्ज़ हम

बात सिर्फ दिल्ली या मुंबई की नहीं है,
बात सिर्फ एक बलात्कार या एक बम विस्फोट की नहीं है,
बात सिर्फ भ्रूण हत्या या एसिड फेंकने की नहीं है,
बात सिर्फ एक मलाला या एक शाहीन की नहीं है
और  बात सिर्फ हिन्दुस्तान, अमरीका या पाकिस्तान की भी है...

बात हमारी है, मेरी है तुम्हारी है, हमारी कायरता की है, हमारी असंवेदनशीलता और हमारी उदासीनता और निष्ठुर स्वभाव की है.

और सबसे बड़ी बात है हमारी खुदगर्ज़ी की.

बात जबतक घर में नहीं आती तब तक हमारे कान पे जू नहीं रेंगती, आज एक बलात्कार की वजह से पूरा देश अचानक जाग गया है और ये करेंगे-वो करेंगे के नारे लग रहे हैं, पर मेरी ही तरह आपको भी मालूम है की , कुछ दिनों बाद ही क्रिसमस की हम पार्टी भी करेंगे और नए साल का जश्न भी मनाएंगे...

बहन तुम्हारी थोड़े ही थी जिसकी इज्ज़त लूटी गई, न ही मेरी...एक फेसबुक का पोस्ट, एक sms का फॉरवर्ड और ग्रुप में बैठ के चार नारे...उससे ज्यादा हमारी हैसियत नहीं है..उससे ज्यादा हम नहीं समझते हैं की हमे कुछ भी करना चाहिए...

पुलिस का काम है भाई, वो करे...हम क्यों?? सच है पुलिस का है..पर पुलिस तो ये भी कहती है की औरतों और लड़किओं को जल्दी घर लौट आना चाहिए और स्वबचाव के लिए फलां-फलां चीज़ें साथ रखनी चाहिए...पर कोई ये नहीं पूछता पुलिस से..के क्यों आप क्या हमारी सुरक्षा करने में असमर्थ हैं??
पुलिस एक आसान रास्ता दिखा रहें हैं...के आप घर में रहो...क्या वो हमको मंज़ूर है?? नहीं न?

ऐसे तो काम नहीं चलेगा...

जब तक एक आम नागरिक अपने हक को नहीं जानेगा और उसे पाने के लिए तब तक लड़ता रहेगा जबतक वो न मिले.

तब तक कुछ नहीं होगा...

फ़र्ज़ कीजिये, एक अन्ना हजारे देश में तूफ़ान मचा सकता है, और कुछ ही दिनों में वो तूफ़ान ख़तम भी हो जाता है और सब अपने अपने काम में लग जाते हैं...क्यों जज़्बा ख़तम हो गया??

हम आज चिल्ला चिल्ला कर एक लड़की के लिए न्याय मांग रहे हैं, और कुछ दिनों बाद बात ख़तम हो जायेगी, जब बम विस्फोट होता है-तब एक हो जाते हैं हम और फिर कुछ दिनों के बाद वापस वैसे ही लापरवाह.

क्या वजह है इन सब की? आप ये तर्क देंगे के भाई जीना भी तो है, काम करना है, घर चलाना है, नारे कबतक लगायेंगे? और वैसे भी ये सिस्टम की बकवास है... है न??

सही है जीना तो है ही..पर ऐसे?? हम निंदा करते हैं के कैसे हाल हैं औरतों के इस्लामिक देशों में और कैसे वो दब कर रहती हैं, यहाँ एक बहुत ही छोटे वर्ग की औरतों के अलावा कम-ओ-बेश वैसी ही तो हालत है...

पारिवारिक उत्पीडन, एसिड हमले, दहेज़, बलात्कार..ये सब होते ही हैं हमारे वहां...और ऐसे तो कितने है जिनके बारे में हमे पता ही नहीं है...राजधानी में हुआ तो सामने आया और हमारे अन्दर का एक सुशुप्त इंसान कुछ देर के लिए जाग गया..पर फिर सो जाएगा..कौनसी नई बात है...मेरी बहन थोड़े ही वो??

आज सवेरे मीडिया गुजरात और हिमाचल के चुनाव को कवर कर रही है...और वो लड़की..वो तो चल बसी...अब कुछ नयी खबर लाओ....आओ आंसू बहाते हैं, नारे लगाते हैं.....और हाँ बाद में चाय पीने चलेंगे...

कोई और बुद्धिजीवी इसी विवाद को आगे बढ़ाएंगे...और कहेंगे के अगर मोदी PM होता तो ऐसा नहीं होता...

नरी बकवास बातें हैं...

खुद को खराब कहने की हिम्मत नहीं बची इसी लिए कहते हैं कि ज़माना खराब है...

बात अन्दर आग लगाने कि है और उसे जलते रखने कि है...दिखाओ कि इस हाड-मांस के शरीर के अन्दर एक इंसान भी बस्ता है...

और हाँ

ये वोही मुल्क है न??

जहाँ दुर्गा, काली, अम्बा और छिन्मस्तिका के सामने सर झुकाया जाता है?? ये वोही मुल्क है न? जहाँ लक्ष्मी कि पूजा कि जाती है?
और हाँ ये वोही मुल्क भी हैं, जहाँ औरतों को जलाया जाता है, उन्हें पर्दों में रखा जाता है और उनके ऊपर ढेर अन्याय भी होते हैं...

आओ..तुम्हारी देवी, तुम्हारी माँ, तुम्हारी दुर्गा आज कुछ असुरों का शिकार बन गई है...आओ...कुछ देर के लिए ही सही...

फिर चाय पीने चलेंगे...आखिर बहन अपनी थोड़े ही थी??

Wednesday, December 5, 2012

भीड़

एक भीड़ के साथ चलता हूँ मैं दिन भर
घर से निकलते ही एक भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ
उस भीड़ का, जहाँ मैं किसी को नहीं जानता
वो बूढ़े आदमी को भी नहीं, जो हाथ में नजाने कितने बरसों से एक फाइल लिए चलता है
वो जवान दिखने की कोशिश करने वाली आंटी को भी नहीं, जो पेट अन्दर लेके चलती है
वो म्युनिसिपल स्कूल में पढने वाले बच्चे को भी नहीं, जिसका बस्ता हमेशा एक तरफ से खुला होता है
मैं उस भीड़ में किसी को नहीं जानता
ना ही कोई उसमें से कोई भी मुझे जानता है
अच्छा लगता है मुझे भीड़ का हिस्सा बने रहना - गुमनाम रहना
वहाँ किसी को पड़ी नहीं है के मैंने कल ही ४०,००० का नया फ़ोन खरीदा है
या मेरी ऑफिस में बॉस के साथ बनती नहीं है
या मेरे घर के बाथरूम की लाइट बदलवानी है

भीड़ का हिस्सा बने रहना अच्छा लगता है

पर तकलीफ तब होती है, जब भीड़ शाम को मेरे साथ मेरे घर में आ जाती है
मैं क्यों सोचता हूँ उनके बारे में, जिनको जानता तक नहीं हूँ?
मुझे नहीं मालूम उनकी तकलीफों के बारे में,
उनके ग़म के बारे में,
उनके परिवार के बारे में...
मैं तो उनमें से किसी का नाम तक नहीं जानता
पता नहीं क्यों, पर शायद मुझे दखल करना पसंद है साथ चलते लोगों की ज़िन्दगी में
येही स्वभाव है मेरा

मुझे कोई फिक्र नहीं उनकी,
किसी के दुःख से दुखी नहीं होने वाला हूँ
मुझे क्या फर्क पड़ता है, जब उनको मेरी फिक्र नहीं है
...पर मैं उन्हें भूलता नहीं हूँ

एक भीड़ के साथ चलता हूँ मैं दिन भर
गुमनामी मुझे पसंद है एक हद तक
शायद सबको पसंद हो
इतना बुरा भी नहीं होता ऐसी जगह पे रहना
जहाँ आप बस एक सर, या बस एक चेहरा हो और कुछ भी नहीं
जहाँ आपका कोई नाम नहीं, कोई ओहदा नहीं
आपकी बगल में, आपके साथ चलने वाला
बिलकुल आपके बराबर का होता है

मुझे याद रहते हैं मेरे साथ चलने वाले वो गुमनाम लोग
मेरे जैसे, अपनी ही दुनिया में जीते, अपने ख्यालों की भीड़ ज़हन में साथ लिए चलते

मेरे ही जैसे गुमनाम लोग
मैं भूलता नहीं हूँ उन्हें...

एक भीड़ के साथ चलता हूँ मैं दिन भर
भीड़ मेरे घर तक आती है
भीड़ का हिस्सा बने रहना अच्छा लगता है