Wednesday, December 5, 2012

भीड़

एक भीड़ के साथ चलता हूँ मैं दिन भर
घर से निकलते ही एक भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ
उस भीड़ का, जहाँ मैं किसी को नहीं जानता
वो बूढ़े आदमी को भी नहीं, जो हाथ में नजाने कितने बरसों से एक फाइल लिए चलता है
वो जवान दिखने की कोशिश करने वाली आंटी को भी नहीं, जो पेट अन्दर लेके चलती है
वो म्युनिसिपल स्कूल में पढने वाले बच्चे को भी नहीं, जिसका बस्ता हमेशा एक तरफ से खुला होता है
मैं उस भीड़ में किसी को नहीं जानता
ना ही कोई उसमें से कोई भी मुझे जानता है
अच्छा लगता है मुझे भीड़ का हिस्सा बने रहना - गुमनाम रहना
वहाँ किसी को पड़ी नहीं है के मैंने कल ही ४०,००० का नया फ़ोन खरीदा है
या मेरी ऑफिस में बॉस के साथ बनती नहीं है
या मेरे घर के बाथरूम की लाइट बदलवानी है

भीड़ का हिस्सा बने रहना अच्छा लगता है

पर तकलीफ तब होती है, जब भीड़ शाम को मेरे साथ मेरे घर में आ जाती है
मैं क्यों सोचता हूँ उनके बारे में, जिनको जानता तक नहीं हूँ?
मुझे नहीं मालूम उनकी तकलीफों के बारे में,
उनके ग़म के बारे में,
उनके परिवार के बारे में...
मैं तो उनमें से किसी का नाम तक नहीं जानता
पता नहीं क्यों, पर शायद मुझे दखल करना पसंद है साथ चलते लोगों की ज़िन्दगी में
येही स्वभाव है मेरा

मुझे कोई फिक्र नहीं उनकी,
किसी के दुःख से दुखी नहीं होने वाला हूँ
मुझे क्या फर्क पड़ता है, जब उनको मेरी फिक्र नहीं है
...पर मैं उन्हें भूलता नहीं हूँ

एक भीड़ के साथ चलता हूँ मैं दिन भर
गुमनामी मुझे पसंद है एक हद तक
शायद सबको पसंद हो
इतना बुरा भी नहीं होता ऐसी जगह पे रहना
जहाँ आप बस एक सर, या बस एक चेहरा हो और कुछ भी नहीं
जहाँ आपका कोई नाम नहीं, कोई ओहदा नहीं
आपकी बगल में, आपके साथ चलने वाला
बिलकुल आपके बराबर का होता है

मुझे याद रहते हैं मेरे साथ चलने वाले वो गुमनाम लोग
मेरे जैसे, अपनी ही दुनिया में जीते, अपने ख्यालों की भीड़ ज़हन में साथ लिए चलते

मेरे ही जैसे गुमनाम लोग
मैं भूलता नहीं हूँ उन्हें...

एक भीड़ के साथ चलता हूँ मैं दिन भर
भीड़ मेरे घर तक आती है
भीड़ का हिस्सा बने रहना अच्छा लगता है

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