मुझे आज तक एक बात समझ नहीं आई है..खैर ऐसी तो बहुत सी बातें हैं जो मेरी समझ के बाहर है पर ये बात बहुत कॉमन सी है.
बचपन में कहीं पढ़ा था.."मन चंगा तो कथौति में गंगा" पर ये कभी भी अमल होते देखा नहीं है...
अक्सर लोगों से सुना है, और काफी करीबी लोगों को भी देखा है कि कोई एक देव स्थल कि तारीफ करते और उसके गुण गाते, " ग़ज़ब कि महिमा है भाई सिद्धि-विनायक मंदिर कि या लालबाग चा राजा कि"
गणपति क्या बदल जाते हैं? क्या साईं बाबा शिर्डी में स्पेशल होते हैं? और क्या आपकि श्रद्धा एक जगह से दूसरी जगह में बदल जाती है? क्या ये मूरत या माहौल का असर है?? अगर है, तो सारी मूरत शिर्डी या सिद्धि-विनायक जैसी क्यों नहीं बनवाते?
शकल तो वोही रहती है आपके ख़ुदा कि तो फिर क्या बदल रहा है..आपकी श्रध्दा?
कहीं तो कुछ गड़बड़ ज़रूर है...
आपके देवस्थलों को रेटिन्ग्ज़ कि ज़रुरत है...फलां-फलां जगह का मंदिर ज्यादा असरकारक है और हाँ वो फलां-फलां दिनों को ही असर दिखता है. यहाँ पर चलके जाने से काम हो जाता है.
जो घर के पड़ोस में है वो मंदिर अच्छा तो है पर यहाँ वो दूर वाले मंदिर सी बात कहाँ?
और ये सिर्फ हिन्दू धर्म कि बात नहीं है..ईसाईयों में भी ये देखा गया है और पारसिओं से भी सुना है...
मुसलामानों में ये नहीं देखा गया है...ये गनीमत है...फिर भी किसी एक जगह पे जाने कि बात तो उनमें भी है ही..या फलां जगह कि एक नमाज़ किसी और जगह ही नमाज़ से ज्यादा असरदार है, ये तो सुना ही है.
क्या वजह है इन सब कि..क्या इंसानों का मन चंगा नहीं रहा अब??
बचपन में कहीं पढ़ा था.."मन चंगा तो कथौति में गंगा" पर ये कभी भी अमल होते देखा नहीं है...
अक्सर लोगों से सुना है, और काफी करीबी लोगों को भी देखा है कि कोई एक देव स्थल कि तारीफ करते और उसके गुण गाते, " ग़ज़ब कि महिमा है भाई सिद्धि-विनायक मंदिर कि या लालबाग चा राजा कि"
गणपति क्या बदल जाते हैं? क्या साईं बाबा शिर्डी में स्पेशल होते हैं? और क्या आपकि श्रद्धा एक जगह से दूसरी जगह में बदल जाती है? क्या ये मूरत या माहौल का असर है?? अगर है, तो सारी मूरत शिर्डी या सिद्धि-विनायक जैसी क्यों नहीं बनवाते?
शकल तो वोही रहती है आपके ख़ुदा कि तो फिर क्या बदल रहा है..आपकी श्रध्दा?
कहीं तो कुछ गड़बड़ ज़रूर है...
आपके देवस्थलों को रेटिन्ग्ज़ कि ज़रुरत है...फलां-फलां जगह का मंदिर ज्यादा असरकारक है और हाँ वो फलां-फलां दिनों को ही असर दिखता है. यहाँ पर चलके जाने से काम हो जाता है.
जो घर के पड़ोस में है वो मंदिर अच्छा तो है पर यहाँ वो दूर वाले मंदिर सी बात कहाँ?
और ये सिर्फ हिन्दू धर्म कि बात नहीं है..ईसाईयों में भी ये देखा गया है और पारसिओं से भी सुना है...
मुसलामानों में ये नहीं देखा गया है...ये गनीमत है...फिर भी किसी एक जगह पे जाने कि बात तो उनमें भी है ही..या फलां जगह कि एक नमाज़ किसी और जगह ही नमाज़ से ज्यादा असरदार है, ये तो सुना ही है.
क्या वजह है इन सब कि..क्या इंसानों का मन चंगा नहीं रहा अब??
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